बात दसवीं शताब्दी के मध्य की है। चोल राजा कंठरादित्य शिव पूजा कर रहे थे। दीपाराधन के बाद उन्होंने अपनी रानी चेंबियन मादेवी को पास बुलाया और कहा,‘‘देवी! पूजा के अंत में प्रतिदिन तिल्लै नटराज भगवान के श्रीचरणों से जो पायल गूंजते थे,उनकी आवाज़ आज क्यों सुनाई नहीं पड़ी? मेरा मन चिंतित है कि मेरी पूजा में कोई कमी तो नहीं रह गई!’’ पर रानी ने राजा को -सजया-सजय़स बंधाते हुए कहा,‘‘आप दुखी न हों मेरे स्वामी! आपकी आराधना या भक्ति में कोई कमी नहीं रह गई।
आज गूंजी नही तो क्या, कल अवश्य गूंजेगी। चिंता न करें।’’‘‘ऐसा नहीं है देवी! मेरा मन कहता है कि आज कुछ तो हुआ है!’’कंठरादित्य चोल ने बिना भोजन किए ही लेट गए पर नींद न आई और करवटें बदलते रहे। तब उन्हें एक अशरीरी आवाज़ सुनाई पड़ी। ‘‘हे शिवज्ञान के धनी! तुम दुखी न हो! आज मैं सेंदन के यहां सत्तू खाने गया हुआ था। इसलिए तुम्हारी पूजा के समय मेरे पायल नहीं गूंजे। कल के रथोत्सव में तुम सेंदन से मिल सकोगे।’’ ‘‘वाह!वाह! अद्भुत्! मेरे भगवान सेंदन के यहां सत्तू खाने गए हुए थे। सेंदन का इतना पवित्र प्रेम! ऐसे उत्कृष्ट भक्त का दर्शन
मु-हजये तुरंत करना है। हां…..पर इतनी रात को मैं कहां जाकर -सजयूं-सजय सकूंगा?कौन है यह सेंदन? पौ फटने तक मु-हजये इंतज़ार करना होगा.. .क्या करें?’’ तिल्लै अर्थात् चिंदंबरम के वन में बसा हुआ था अत्यंत निर्धन बना सेंदन। दो दिनों से घोर वर्षा के कारण लकड़ी बेचने न जा सका जिससे वह भूखे रहने को मजबूर हुआ। पर ऐसे समय में उसके घर एक बुजुर्ग आ टपके।
प्रतिदिन किसी शिवभक्त को भोजन खिलाकर स्वयं खाने की रीति अपनाया हुआ था सेंदन। पर उस दिन वह उस बुजुर्ग को खिलाने में असमर्थ होकर तरस उठा। पर उसकी पत्नी ने घर में उपलब्ध कुछ चावल के चूरे को पानी में घोला और उसे पकाकर सत्तू बनाया, साथ ही पिछवाड़े में उगे साग के पत्तों से सब्जी बनाई और आगंतुक बुजुर्ग को खिलाया। वे भी तृप्त हुए और बचे हुए सत्तू को अपने अंगोछे में बांधकर निकल पड़े। अगले दिन प्रातः चिदंबरम मंदिर के नटराज की सन्निधि बनी कनक सभा को खोलनेवाले दीक्षितों ने पाया कि नटराज भगवान की मूर्ति और वस्त्रों में सत्तू भोजन यहां-उचयवहां चिपका है। वे खूब सहम गए कि कहीं कुछ तो गलती हुई है। चिदंबरम नटराज के रथोत्सव का दर्शन करने चिदंबरम पधारे चोल राजा को वहां के दीक्षितों ने यह सूचना दी कि भगवान की मूर्ति पर भोजन के अंश चिपके हुए थे। यह सुन राजा आनंदित हो उठा कि सत्तू खाए चमत्कार और रूप को उस नटराज ने खुद इस रत्नसभा में भी प्रकट कर दिया है। उन्होंने पिछली रात को सुनाई पड़ी अशरीरी आवाज़ का जिक्र उन दीक्षितों से किया। राजा के मन में सेंदन से मिलने की उत्सुकता ब-सजय़ती गई। उस दिन नटराज की मूर्ति विराजमान वह रथ गलियों से गुज़र रहा था पर किसी एक स्थल पर खाईं में उतर गया। हाथी और अश्व की सेना की सहायता से उसे ऊपर उठाने का सारा प्रयास विफल रहा।
जब सब किंकर्तव्यविमू-सजय़ बने रहे तो अचानक अंतरिक्ष से एक आवाज़ आईः ‘‘सेंदा! तुम रथ को बाहर निकालने के लिए मंगल गीत गाओ!’’यह सुन रथ को घसीटने वालों की भीड़ में खड़े सेंदनार ‘मन्नुग तिल्लै वळर्ग नम भक्तर्गळ’ अर्थात् ‘तिल्लै चिदंबरम अमर रहे और
यहां के भक्तों की जय हो’ अनेक मंगलगीत गाने लगे। इसके बाद सब मिलकर दुबारा रथ खींचने लगे तो रथ आसानी से गलियों में गुज़रने लगा। तब सभी भक्त सेंदनार का गुणगान करने लगे। राजा कंठरादित्य चोल ने प्रेमपूर्वक सेंदनार का आलिंगन कर लिया। वे कहने लगेः खुली जटा वाले भगवान को सत्तू खिलाए उत्कृष्ट भगवत् प्रेमी हे सेंदनार! आपके सम्मुख तो मैं बहुत तुच्छ हूं।’’ पर सेंदनार ने कहा,‘‘हे राजन्! आपके पिता परांतक चोल ने इस चिदंबरम मंदिर को स्वर्णमय बनाया। आप तो नटराज के चरण कमलों के पायल की गूंज प्रतिदिन सुननेवाले शिव ज्ञान के शिखामणि हैं।’’ कावेरीपूंपट्टिनम में एक प्रतिष्ठित व्यापारी बने तिरुवेंण्काड़र के प्रमुख लेखाकार थे यह सेंदनार। इसी तिरुवेंण्काड़र ने अपने पुत्र मरुदवाणर के माध्यम से जग में इस शाश्वत सत्य की जानकारी प्राप्त की कि अंत समय में बिन छेद की सुई भी काम नहीं आएगी। यही नहीं, इस संसार में हर वस्तु नश्वर है। जब उन्होंने सन्यास ग्रहण किया तो लोग उन्हें ‘पट्टिनत्तार’ पुकारने लगे। उन्होंने अपने लेखाकार से
घोषणा करवाई कि अपनी सारी संपत्ति को लोग उठा ले जा सकते हैं।
सेंदनार ने सजयं-सजयोरा पिटवाई और यह घोषणा कर दी। पर तब के शासक ने ऐसी घोषणा को अपराध माना और सेंदनार को कारागृह में बंद कर दिया। उनकी संपत्ति को भी जब्द करने का आदेश दिया। सेंदनार की पीड़ाओं की सूचना लोगों ने पट्टिनत्तार को पहुंचाई तो उन्होंने तिरुवेंण्काडु के ईश्वर से प्रार्थना की। तुरंत सेंदनार कारागार से मुक्त हुए। अपने गुरु पट्टिनत्तार की सलाह से वे तिल्लै की सीमा में जा बसे जहां भगवान नटराज खुद प्रकट हुए और उनके हाथ का भोजन खाकर उनकी भक्ति को सर्वविदित किया। तिरुवीऴमलै,तिरुवावडुतुरै जैसे स्थलों में भगवान शिव का स्तुतिगान किया। तिरुविडैक्किऴ आकर कुरा पेड़ की छांव में विराजमान सुब्रमण्य भगवान का स्तुतिगान कर मठ भी स्थापित किया। तब पूस मास के पुष्य नक्षत्र के दिन सोमस्कंध मूर्ति के रूप में भगवान उनके सम्मुख प्रकट हुए और तब वे उसी भगवान में ऐक्य हो गए। आज भी शिव मंदिर के हर उत्सव में इनके गीत गाए जाते हैं।चेंदनार के घर के भगवान शिव ने जो आहार किया उसी की यादगार में हर मार्गशीर्ष महीने के आर्द्रा नक्षत्र के दिन घर-उचयघर में चावल के चूर्ण को गुड़ की चाशनी में घोल कर प्रसाद बनाया जाता
है और बड़े भक्ति भाव से प्रातःकाल पूजा में निवेदन किया जाता है।
डॉ. जमुना कृष्णराज,चेन्नई 9444400820.