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नालंदा की सांस्कृतिक विरासत

2367 वर्ग कि. अर्थात 914 वर्ग मील में 2011 के जनगणना के अनुसार 287253 आवादी वाला नालंदा जिले का मुख्यालय बिहार शरीफ है । बुद्ध और महावीर का क्षेत्र नालंदा है ।  महावीर ने मोक्ष की प्राप्ति पावापूरी  बुद्ध के प्रमुख शारिपुत्र, का जन्म नालन्दा में हुआ था।नालंदा पूर्व में अस्थामा तक पश्चिम में तेल्हारा तक दक्षिण में गिरियक तक उत्तर में हरनौत तक फैला हुआ है।विश्‍व के प्राचीनतम् विश्‍वविद्यालय के अवशेषों को अपने आंँचल में समेटे नालन्‍दा बिहार , नालंदा  विश्‍वविद्यालय के अवशेष, संग्रहालय, नव नालंदा महाविहार तथा ह्वेनसांग स्थल  हैं। नालंदा जिले का नालंदा , राजगीर, पावापुरी पर्यटन स्‍थल हैं। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में नालंदा विश्वविद्यालय में जीवन का एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था। भगवान बुद्ध ने सम्राट अशोक को  उपदेश दिया था। प्रसिद्ध बौद्ध सारिपुत्र का जन्म स्थल नालंदा  था। नालंदा जिले का नलसन्द का नालंदा विश्वविद्यालय , राजगीर में गर्म पानी के झरने का निर्माण् बिम्बिसार ने अपने शासन काल में करवाया था । , राजगीर में ब्रह्मकुण्ड, सरस्वती कुंड ,चीन का मन्दिर, जापान का मंदिर , शांति स्तूप , बिहार शरीफ में जामा मस्जिद , पावापुरी का भगवान महावीर का जल मंदिर , तपोवन का गर्म कुंड , वेणुवन , रज्जू मार्ग , जरासंध का अखाड़ा , स्वर्ण भंडार गुफा  है । नालन्‍दा विश्‍वविद्यालय के अवशेषों की खोज अलेक्‍जेंडर कनिंघम ने की थी।नालंदा विश्‍वविद्यालय की स्‍थापना 450 ई॰ में गुप्त शासक कुमारगुप्‍त ने की थी।   महान शासक हर्षवर्द्धन तथा पाल द्वारा नालंदा  विश्‍वविद्यालय को दान एवं संरक्षण दिया गयाथा ।

नालंदा  विश्‍वविद्यालय का अस्तित्‍व 12वीं शताब्‍दी तक बना रहा। 12‍वीं शताब्‍दी में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने इस विश्‍वविद्यालय को जल‍ा डाला। जो कुत्तुबुद्ददीन का सिपह-सलाहकार था ।नालंदा प्राचीन् काल का सबसे बड़ा अध्ययन केंद्र  तथा इसकी स्थापना पांँचवी शताब्दी ई० में हुई थी। पांचवी से बारहवीं शताब्दी में इसे बौद्ध शिक्षा के केंद्र के रूप में जाना जाता था। सातवी शताब्दी ई० में ह्वेनसंग  अध्ययन के लिए आया था । दुनिया के प्रथम आवासीय अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में विश्व  से आए 10,000 छात्रों को 2,000 शिक्षकों द्वारा त किया जाता था । गुप्त राजवंश ने प्राचीन कुषाण वास्तुशैली से निर्मित  मठों का संरक्षण किया। सम्राट  अशोक तथा हर्षवर्ध ने  मठों, विहार तथा मंदिरों का निर्माण करवाया था । सन् 1951 में अंतरराष्ट्रीय बौद्ध शिक्षा केंद्र की स्थापना की गई थी। बिहारशरीफ में  मलिक इब्राहिम बाया की दरगाह पर हर वर्ष उर्स का आयोजन किया जाता है। छठ पूजा के लिए प्रसिद्ध सूर्य मंदिर  बडागांव में स्थित है। 14 हेक्‍टेयर क्षेत्र में इस विश्‍वविद्यालय के अवशेष  हैं। खुदाई में मिले सभी इमारतों का निर्माण लाल पत्‍थर से किया गया था। यह परिसर दक्षिण से उत्तर की ओर बना हुआ है। मठ या विहार इस परिसर के पूर्व दिशा में स्थित थे। मंदिर या चैत्‍य पश्‍िचम दिशा में। इस परिसर की सबसे मुख्‍य इमारत विहार थी। वर्तमान समय में भी यहां दो मंजिला इमारत मौजूद है। यह इमारत परिसर के मुख्‍य आंगन के समीप बनी हुई है। शिक्षक अपने छात्रों को संबोधित किया करते थे।  विहार में प्रार्थनालय सुरक्षित अवस्‍था में बचा हुआ है। इस प्रार्थनालय में भगवान बुद्ध की प्रतिमा स्‍थापित है। यह प्रतिमा भग्‍न अवस्‍था में है।यहां समंदिर  परिसर का सबसे बड़ा मंदिर है। मंदिर कई छोटे-बड़े स्‍तूपों से घिरा हुआ है। इन सभी स्‍तूपो में भगवान बुद्ध की मूर्त्तियाँ बनी हुई है। ये मूर्त्तियाँ विभिन्‍न मुद्राओं में बनी हुई है।विश्‍व‍विद्यालय परिसर के विपरीत दिशा में एक छोटा सा पुरातत्‍वीय संग्रहालय बना हुआ है। इस संग्रहालय में खुदाई से प्राप्‍त अवशेषों को रखा गया है। इसमें भगवान बुद्ध की विभिन्‍न प्रकार की मूर्तियों का अच्‍छा संग्रह है। साथ ही बुद्ध की टेराकोटा मूर्तियांँ और प्रथम शताब्‍दी का दो जार भी इसी संग्रहालय में रखा हुआ है। संग्रहालय में तांँबे की प्‍लेट, पत्‍थर पर टंकन (खुदा) अभिलेख, सिक्‍के, बर्त्तन तथा 12वीं सदी के चावल के जले हुए दाने रखे हुए हैं। नालंदा महाविहार के अवशेष नालंदा में निर्देशांक 25°08′12″N 85°26′38″E / 25.13667°N 85.44389°E पर विद्यार्जन केन्द्र, नालंदा  विश्विद्यालय की लंबाई  240 मी॰ (800 फीट) , चौड़ाई 490 मी॰ (1,600 फीट) , क्षेत्रफल 12 हे॰ (30 एकड़) स्थित है ।

नालंदा विश्वविद्यालय को बख्तियार खिलजी द्वारा ल. 1200 ई.  में नष्ट कर दिया गया था ।नालंदा विश्वविद्यालय का उत्खनन 1915–1937, 1974–1982 में पुरातत्ववेत्ता डेविड स्पूनर, हीरानंद शास्त्री, जे ए पेज, ऍम कुरैशी, जी सी चंद्रा, ऍन नाज़िम, अमलानन्द घोष द्वारा किया गया है । 57 . 88 वर्ग हेक्टेयर मध्य क्षेत्रफल का  23 वर्ग हेक्टेयर  में निर्मित नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना गुप्त वंशीय  शासक कुमारगुप्त प्रथम द्वारा ४५०-४७० को किया गया है ।  महान सम्राट हर्षवर्द्धन और पाल शासकों का संरक्षण मिला। स्थानीय शासकों तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों के साथ ही साथ  अनेक विदेशी शासकों से अनुदान मिला था ।नालंदा  विश्वविद्यालय में भारत  ,  कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। नालंदा के विशिष्ट शिक्षा प्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय को नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त थी। केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें व्याख्यान हुआ करते थे। अभी तक खुदाई में तेरह मठ मिले हैं। वैसे इससे भी अधिक मठों के होने ही संभावना है। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे। कमरे में सोने के लिए पत्थर की चौकी होती थी। दीपक, पुस्तक इत्यादि रखने के लिए आले बने हुए थे। प्रत्येक मठ के आँगन में एक कुआँ बना था। आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें  थी । नालंदा  विश्वविद्यालय में तीन श्रेणियों के आचार्य योग्यतानुसार प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी में आते थे। नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र, धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और स्थिरमति प्रमुख थे। ७ वीं सदी में ह्वेनसांग के समय  विश्व विद्यालय के प्रमुख शीलभद्र महान आचार्य, शिक्षक और विद्वान थे। महायान के प्रवर्तक नागार्जुन, वसुबन्धु, असंग तथा धर्मकीर्ति की रचनाओं का सविस्तार अध्ययन होता था। वेद, वेदांत और सांख्य भी पढ़ाये जाते थे। व्याकरण, दर्शन, शल्यविद्या, ज्योतिष, योगशास्त्र तथा चिकित्साशास्त्र भी पाठ्यक्रम के अन्तर्गत थे। नालंदा की खुदाई में मिली अनेक काँसे की मूर्तियो के आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि कदाचित् धातु की मूर्तियाँ बनाने के विज्ञान का भी अध्ययन होता था। यहाँ खगोलशास्त्र अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था।

नालंदा में सहस्रों विद्यार्थियों और आचार्यों के अध्ययन के लिए, नौ तल का एक विराट पुस्तकालय में ३ लाख से अधिक पुस्तकों का अनुपम था।’रत्नरंजक’ ‘रत्नोदधि’ ‘रत्नसागर विशाल भवनों में स्थित था। ‘रत्नोदधि’ पुस्तकालय में अनेक अप्राप्य हस्तलिखित पुस्तकें संग्रहीत थी। पुस्तकों की प्रतिलिपियाँ चीनी यात्री अपने साथ ले गये थे। छात्रों के रहने के लिए ३०० कक्ष बने थे, जिनमें अकेले या एक से अधिक छात्रों के रहने की व्यवस्था थी। एक या दो भिक्षु छात्र एक कमरे में रहते थे। कमरे छात्रों को प्रत्येक वर्ष उनकी अग्रिमता के आधार पर दिये जाते थे। इसका प्रबंधन स्वयं छात्रों द्वारा छात्र संघ के माध्यम से किया जाता था।यहां छात्रों का अपना संघ था। वे स्वयं इसकी व्यवस्था तथा चुनाव करते थे। यह संघ छात्र संबंधित विभिन्न मामलों में  छात्रावासों का प्रबंध आदि करता था। छात्रों को किसी प्रकार की आर्थिक चिंता न थी। उनके लिए शिक्षा, भोजन, वस्त्र औषधि और उपचार सभी निःशुल्क थे। राज्य की ओर से विश्वविद्यालय को दो सौ गाँव दान में मिले थे, जिनसे प्राप्त आय और अनाज से उसका खर्च चलता था। १३ वीं सदी तक इस विश्वविद्यालय का पूर्णतः अवसान हो गया। मुस्लिम इतिहासकार मिनहाज़ और तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के वृत्तांतों से पता चलता है कि इस विश्वविद्यालय को तुर्कों के आक्रमणों से बड़ी क्षति पहुँची। तारानाथ के अनुसार तीर्थिकों और भिक्षुओं के आपसी झगड़ों से भी इस विश्वविद्यालय की गरिमा को भारी नुकसान पहुँचा। इसपर पहला आघात हुण शासक मिहिरकुल द्वारा किया गया था । ११९९ में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने इसे जला कर पूर्णतः नष्ट कर दिया। प्रसिद्ध चीनी विद्वान यात्री ह्वेन त्सांग और इत्सिंग ने कई वर्षों तक यहाँ सांस्कृतिक व दर्शन की शिक्षा ग्रहण की। ह्वेनत्सांग के अनुसार  सहस्रों छात्र नालंदा में अध्ययन करते थे और इसी कारण नालंदा प्रख्यात हो गया था। दिन भर अध्ययन में बीत जाता था। विदेशी छात्र भी अपनी शंकाओं का समाधान करते थे। इत्सिंग के अनुसार नालंदा विश्वविद्यालय के विख्यात विद्वानों के नाम विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर श्वेत अक्षरों में लिखे जाते थे। नालंदा  विश्वविद्यालय के अवशेष चौदह हेक्टेयर क्षेत्र में मिले है । उत्खनन से प्राप्त इमारतों का निर्माण लाल पत्थर से किया गया था। परिसर दक्षिण से उत्तर की ओर बना हुआ है। मठ या विहार इस परिसर के पूर्व दिशा में व चैत्य (मंदिर) पश्चिम दिशा में बने थे। इस परिसर की सबसे मुख्य इमारत विहार-१ थी। आज में भी यहां दो मंजिला इमारत शेष है। यह इमारत परिसर के मुख्य आंगन के समीप बनी हुई है। संभवत: यहां ही शिक्षक अपने छात्रों को संबोधित किया करते थे। इस विहार में एक छोटा सा प्रार्थनालय भी अभी सुरक्षित अवस्था में बचा हुआ है।  प्रार्थनालय में भगवान बुद्ध की भग्न प्रतिमा बनी है। 

मंदिर  परिसर का सबसे बड़ा मंदिर है। मंदिर कई छोटे-बड़े स्तूपों से घिरा हुआ है। इन सभी स्तूपों में भगवान बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं में मूर्तियां बनी हुई है। विश्वविद्यालय परिसर के विपरीत दिशा में एक छोटा सा पुरातात्विक संग्रहालय बना हुआ है। इस संग्रहालय में खुदाई से प्राप्त अवशेषों को रखा गया है। इसमें भगवान बुद्ध की विभिन्न प्रकार की मूर्तियों का अच्छा संग्रह है। प्रथम शताब्दी का  बुद्ध की टेराकोटा मूर्तियां , संग्रहालय में तांबे की प्लेट, पत्थर पर खुदे अभिलेख, सिक्के, बर्त्तन तथा १२वीं सदी के चावल के जले हुए दाने रखे हुए हैं ।भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने नालंदा पुरावशेष प्राचीन स्मारक एवं पुरातात्विक स्थल और पुरावशेष अधिनियम १९५८ के तहत संरक्षित स्थल घोषित किया है। इस स्थान की मूल सामग्रियों से  मरम्मत कराई गई है। युनेस्को अधिकारियों के अनुसार नालंदा स्थित मंदिर संख्या तीन का निर्माण पंचरत्न स्थापत्य कला से किया गया है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा  नालंदा विश्वविद्यालय के नाम पर एक नए विश्वविद्यालय की स्थापना की गई है । नोबल पुरस्कार विजेता साहित्यकार अमर्त्य सेन के अनुसार वर्ष २०१० तक शैक्षणिक सत्र  आरंभ है । नालंदा विश्वविद्यालय को  पुनर्जीवन प्रयास में सिंगापुर, चीन, जापान व दक्षिण-कोरिया ने सहयोग दिया है । नालंदा विश्वविद्यालय में वैदिक धर्म , बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म , सनातन धर्म की शिक्षा दी जाती थी । नालंदा में वैदिक धर्म के विदुषी सारी , बौद्ध धर्म के प्रणेता सारिपुत्र एवं मौद्गल्यायन  का जन्म भूमि तथा कर्म भूमि नालंदा थी । राजगीर में राजा वसु की राजधानी तथा पुरुषोत्तम मास में ब्रह्मेष्टि यज्ञ कराए जाने पर 33 कोटि के देव आकर यज्ञ को पूर्ण किया था । राजगीर में मलमास के समय ब्रह्मकुंड में स्नान ध्यान करते है । भगवान महावीर का प्रिय स्थल राजगीर , पावापुरी थी ।  कर्म और साधना का स्थल  हेमकुण्ड भारतीय वाङ्गमय साहित्य और संस्कृति में हेमकुण्ड का स्थल कर्म और साधना के संबंध का उल्लेख किया है । सप्त ऋषियों के द्वारा सिंचित और साधना से परिपूर्ण स्थल शांति , धैर्य और उन्नति का मार्ग प्रसस्त करता हेमकुण्ड स्थल है ।  सतयुग में शेषनाग , त्रेतायुग में लक्ष्मण और कलियुग में सर्वदमन गुरु गोविंद सिंह का पूर्व जन्म और साधना स्थल हेमकुण्ड है ।  उत्तराखंड, के चमोली जिले का हेमकुंट पर्वत पर हेमकुण्ड के किनारे हेमकुंड साहिब  स्थित सिखों का  प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। हिमालय पर्वतमाला की हेमकूट सात  पहाड़ियों से घिरा 4632 मीटर अर्थात 15,200 फुट की ऊँचाई पर  बर्फ़ीली झील के हेमकुण्ड साहिब गुरुद्वारा और लोक पाल लक्षमण जी का मंदिर स्थित है।  सात पहाड़ों पर निशान साहिब झूलते हैं। हेमकुण्ड साहिब तक ऋषिकेश-बद्रीनाथ रास्ता पर पड़ते गोबिन्दघाट से केवल पैदल चढ़ाई के द्वारा पहुँचा जाता है।हेमकुण्ड में  गुरुद्वारा श्री हेमकुंड साहिब सुशोभित है। हेमकुण्ड स्थान का उल्लेख सिख धर्म के 10 वें गुरु गोबिंद सिंह द्वारा रचित दसम ग्रंथ में है। संस्कृत में हेमकुण्ड को  हेम का अर्थ “बर्फ़”और कुंड का अर्थ तलाव , कटोरा  है। दसम ग्रंथ के अनुसार हेमकुण्ड का राजा पाँडु राजो द्वारा हेम कुंड स्थापित किया गया था। त्रेतायुग में भगवान राम के अनुज लक्ष्मण ने  हेमकुण्ड की स्थापना करवाया था। सिखों के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह ने यहाँ पूजा अर्चना की थी। गुरूद्वारा हेमकुण्ड घोषित कर दिया गया।  दर्शनीय तीर्थ में चारों ओर से बर्फ़ की ऊँची चोटियों का प्रतिबिम्ब विशालकाय झील में अत्यन्त मनोरम एवं रोमांच से परिपूर्ण  है। हेम  झील में हाथी पर्वत और सप्तऋषि पर्वत श्रृंखलाओं से पानी का जलधारा हेम झील से प्रविहित होने वाला जल को हिमगंगा कहै जाता  हैं। झील के किनारे स्थित लक्ष्मण मंदिर  अत्यन्त दर्शनीय है।

अत्याधिक ऊँचाई पर होने के कारण वर्ष में  छ: महीने यहाँ झील बर्फ में जम जाती है। फूलों की घाटी यहाँ का निकटतम पर्यटन स्थल है ।हिमालय में स्थित गुरुद्वारा हेमकुंड साहिब सिखों के सबसे पवित्र स्थानों में से एक माना जाता है  यहाँ पर सिखों के दसवें और अंतिम गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह ने अपने पिछले जीवन में ध्यान साधना की थी । स्थानीय निवासियों द्वारा बहुत असामान्य, पवित्र, विस्मय और श्रद्धा का स्थान माना जाता है । हेम झील और इसके आसपास के क्षेत्र को लोग लक्ष्मण जी को “लोकपाल” से जानते हैं । हेमकुंड साहिब का गुरु गोबिंद सिंह की आत्मकथा में उल्लेख किया गया था ।सिख इतिहासकार-भाई संतोख सिंह द्वारा 1787-1843 हेमकुण्ड  जगह का विस्तृत वर्णन दुष्ट दमन की कहानी में उल्लेख किया गया था । उन्होंने  गुरु का अर्थ शाब्दिक शब्द ‘बुराई के विजेता’  है ।हेमकुंड साहिब को  गुरुद्वारा श्री हेमकुंड साहिब के रूप में जाना जाता है । सिखों के दसवें गुरु, श्री गुरु गोबिंद सिंह जी (1666-1708) के लिए समर्पित होने का उल्लेख दसम ग्रंथ में स्वयं गुरुजी ने किया है ।सर्वे ऑफ इंडिया के अनुसार, ये सात पर्वत चोटियों से घिरा हुआ एक हिमनदों झील के साथ 4632 मीटर (15,197 फीट) की ऊंचाई पर हिमालय में स्थित है. इसकी सात पर्वत चोटियों की चट्टान पर  निशान साहिब सजा हुआ है ।हेमकुण्ड  पर गोविन्दघाट से होते हुए ऋषिकेश-बद्रीनाथ राजमार्ग पर जाया जता है ।गोविन्दघाट के पास मुख्य शहर जोशीमठ है ।राजा  पांडु  का  अभ्यास योग स्थल था । ,  दसम ग्रंथ में उल्लेख है कि पाण्डु हेमकुंड पहाड़ पर गहरे ध्यान में  भगवान ने उन्हें सिख गुरु गोबिंद सिंह के रूप में यहाँ पर जन्म लेने का आदेश दिया था । पंडित तारा सिंह नरोत्तम जो उन्नीसवीं सदी के निर्मला विद्वान द्वारा  कहा गया है कि हेमकुंड की भौगोलिक स्थिति का पता लगाने वाले पहले सिख थे । श्री गुड़ तीरथ संग्रह में 1884 में प्रकाशित संलेख में हेमकुण्ड का वर्णन 508 सिख धार्मिक स्थलों में से एक के रूप में किया है । सिख विद्वान भाई वीर सिंह ने हेमकुंड के विकास के बारे में खोजकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी ।भाई वीर सिंह का हेमकुण्ड वर्णन पढ़कर संत सोहन सिंह रिटायर्ड आर्मीमैन ने हेमकुंड साहिब को खोजने का फैसला किया और वर्ष 1934 में सफलता प्राप्त की है ।पांडुकेश्वर में गोविंद घाट के पास संत सोहन सिंह ने स्थानीय लोगों के पूछताछ के बाद वो जगह ढूंढ ली जहां राजा पांडु ने तपस्या की थी और बाद में झील को भी ढूंढ निकला जो लोकपाल के रूप विख्यात थी । 1937 ई. में गुरु ग्रंथ साहिब को स्थापित किया गया । दुनिया में सबसे ज्यादा माने जाने वाले गुरुद्वारे का स्थल है । 1939 ई. में संत सोहन सिंह ने अपनी मौत से पहले हेमकुंड साहिब के विकास का काम जारी रखने के मिशन को मोहन सिंह को सौंप दिया था । गोबिंद धाम में गुरुद्वारा को मोहन सिंह द्वारा निर्मित कराया गया था । 1960 में अपनी मृत्यु से पहले मोहन सिंह ने एक सात सदस्यीय कमेटी बनाकर इस तीर्थ यात्रा के संचालन की निगरानी प्रदान किया है । गुरुद्वारा श्री हेमकुंड साहिब के अलावा हरिद्वार, ऋषिकेश, श्रीनगर, जोशीमठ, गोबिंद घाट, घांघरिया और गोबिंद धाम में गुरुद्वारों में सभी तीर्थयात्रियों के लिए भोजन और आवास उपलब्ध कराने का प्रबंधन हेमकुण्ड साहिब कमिटि द्वारा किया जाता है । बर्फीले पहाड़ों के बीचों-बीच बसा अद्भुत लक्ष्मण मंदिर है । उत्तराखंड के चमोली जिले का हेमकुण्ड में स्थित सिक्खों के पवित्र धाम हेमकुंड साहिब गुरुद्वारा और लक्ष्मण मंदिर है । हेमकुंड साहिब की यात्रा की शुरुआत अलकनंदा नदी के किनारे समुद्र तल से 1828 मीटर उचाई पर जोशीमठ  से बद्रीनाथ रोड के किनारे स्थित  गोविंदघाट गुरुद्वारा है । गोविंदघाट से घांघरिया तक 13 किलोमीटर की खड़ी  चढ़ाई है ।

गोविंद घाट से आगे का 6 किलोमीटर का सफ़र ज्यादा मुश्किलों से भरा है। उत्तराखंड के पावन स्थल पर  हिंदू धर्म का लक्ष्मण मंदिर है ।, जिसका नाम लक्ष्मण लोकपाल मंदिर के नाम से ख्याति  है।  पौराणिक आलेख के अनुसार भगवान राम के भाई लक्ष्मण ने श्री  राम के साथ 14 साल का वनवास काटा था। प्राचीन समय में हेमकुण्ड  स्थान पर लक्ष्मण मंदिर स्थापित हैं । हेमकुण्ड में शेषनाग ने तपस्या की थी। जिसके बाद शेषनाग ने त्रेता युग में राजा दशरथ की भार्या सुमित्रा के पुत्र लक्ष्मण के रूप में जन्म मिला था। लक्ष्मण मंदिर में भ्यूंडार गांव के ग्रामीण पूजा करते हैं। यह मंदिर हेमकुंड  के परिसर में है। हेमकुंड आने वाले तीर्थयात्री लक्ष्मण मंदिर में मत्था टेकना नहीं भूलते। लक्ष्मण मंदिर हेमकुंड झील के तट पर स्थित है। लक्ष्मण ने रावण के पुत्र मेघनाद को मारने के बाद लक्ष्मण ने अपनी शक्ति वापस पाने के लिए कठोर तप हेम कुंड में किया था। सिख धर्म के 10 वे गुरु गोबिंद सिंह ने पूर्व जन्म में तपस्या की थी तपस्या,  नॉर्दन इंडिया के हिमालयन रेंज में 15,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित हेमकुंड साहिब सिखों का मशहूर तीर्थस्थान है। गर्मियों के महिनों में हेमकुण्ड हर साल दुनियाभर से हजारों लोग पहुंचते हैं। सिखों के दसवें गुरु, गोबिंद सिंह की ऑटोबायोग्राफी ‘बछित्तर नाटक’ के अनुसार गुरु गोबिंद सिंह ने अपने पिछले जन्म में तपस्या की थी। ईश्वर के आदेश के बाद गुरु गोविंद सिंह ने पटना सिटी बिहार में पौष शुक्ल सप्तमी 1728 दिनांक 22दिसंबर 1666 ई . को धरती पर दूसरा जन्म लिया, ताकि वे लोगों को बुराइयों से बचाने का रास्ता दिखा सकें। सात पहाड़ों से घिरा  हेमकुंड हसि उत्तराखण्ड के चमोली जिले में है हेमकुंड साहिब। 15,200 फीट की ऊंचाई पर सात बर्फीले पहाड़ों से घिरी इस जगह पर एक बड़ा तालाब भी है, जिसे लोकपाल कहते हैं। यहां भगवान लक्ष्मण का एक मंदिर भी है।लक्ष्मण का पुराना अवतार सप्त  सिर वाला शेषनाग  था । शेषनाग लोकपाल झील में तपस्या करते थे और विष्णु भगवान उनकी पीठ पर आराम करते थे। मेघनाथ के साथ युद्ध में घायल होने पर लक्ष्मण को लोकपाल झील के किनारे लाया गया था। यहां हनुमान ने लक्ष्मण जी को  संजीवनी बूटी दी और वे ठीक हो गए। लक्षमण जी के ठीक होने पर  देवताओं ने आसमान से फूल बरसाए थे ।देवों द्वारा फूल बरसाने का स्थान को   फूलों की घाटी कहा गया है । वैली ऑफ फ्लॉवर्स’ फूलों की घाटी  के नाम  है। वास्तविक रूप में  स्थल का स्वर्ग हेमकुण्ड  है । हेमकुण्ड की यात्रा के दौरान  साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक द्वारा 30 सितंबर 2017 को हेमकुण्ड  भ्रमण किया है । उन्होंने गोविंद घाट से   फॉरविलर से  पुलांग तक , पुलांग से घोड़े की सवारी से गोविंद धाम घांघरिया जा कर विश्राम किया तथा 01 अक्टूबर 2017 को घांघरिया गुरुद्वारा में माथा टेकने के बाद घोड़े की सवारी से 07 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद हेमकुण्ड स्थित हेमकुण्ड में स्नान ध्यान करने के बाद लक्षमण मंदिर में जाकर पूजा अर्चना तथा हेमकुण्ड साहिब गुरुद्वारा में माथा टेक टेक कर उपासना किया । 

हेमकुण्ड में स्थित सप्तऋषि पर्वत की वादियां मनमोहक और शांति और नीले जल युक्त हेमकुण्ड का जल पवित्र , लक्षमण जी , भगवान शिव लिंग , शेषनाग , माता दुर्गा , ऋषियों द्वारा उत्पन्न दुष्टदामन का स्थल , तथा हेमकुण्ड साहिब गुरुद्वारा का दर्शन किया । हेमकुण्ड से पदयात्रा करने के बाद गोविंद घाट का गुरु द्वारा में गुरुगोविंद सिंह का दर्शन , माथा टेकने के बाद 02 अक्टूबर 2017 को जोशी मठ का गुरुद्वारा में विश्राम किया । जोशीमठ स्थित आदिशंकराचार्य द्वारा निर्मित मठ , भगवान नरसिंह , भगवान सूर्य , गणेश , हनुमान जी , वासुदेव , माता काली का दर्शन और उपासना करने के बाद  15500 फ़ीट की ऊँचाई पर स्थित ओली पर्वत की श्रंखला पर भ्रमण करने के दौरान नंदा देवी , त्रिशूल , धौला गिरी और द्रोण पर्वत का अवलोकन किया । बिहार ग्रामीण जीविकोपार्जन प्रोत्साहन समिति मुजफ्फरपुर के ट्रेनिंग ऑफिसर प्रवीण कुमार पाठक के साथ 03 अक्टूबर 2017 को ऋषिकेश गुरुद्वारा में विश्राम करने के पश्चात 04 अक्टूबर 2017 को ऋषिकेश स्थित गंगा में स्नान ध्यान और भगवान शिव का दर्शन , गीता भवन भ्रमण करने के बाद ऋषिकेश गुरुद्वारा में माथा टेका तथा संग्रहालय का भ्रमण किया है ।मिथिला की  सांस्कृतिक विरासतनेपाल और मिथिला संस्कृति की पहचान जनकपुर है । नेपाल का त्रेतायुग में  मिथिला की राजधानी  जनकपुर थी । सतयुग में विदेह राज्य के संस्थापक इक्ष्वाकु  के पुत्र निमि  वंशीय  मिथिला के राजा  सीरध्वज जनक की पुत्री सीता  और अयोध्यापति राजा दशरथ के पुत्र राम के साथ जनकपुर में विवाह हुआ था । महाकवि विद्यापति के ग्रंथ “भू-परिक्रमा” के अनुसार जनकपुर से सात कोस दक्षिण महाराज जनक का राजमहल था। यथा : जनकपुरादक्षिणान्शे सप्तकोश-व्यतिक्रमें। महाग्रामे गहश्च जनकस्य वै। जनक वंश का कराल जनक के समय में नैतिक अद्य:पतन हो गया। कौटिल्य का अर्थशास्त्र के अनुसार  कराल जनक ने कामान्ध होकर ब्राह्मण कन्या का अभिगमन करने के कारण कराल जनक बांधवों के साथ मारा गया। अश्वघोष के  बुद्ध चरित्र में उल्लेख किया गया है कि कराल जनक  के पश्चात जनक वंश में लोग बच गए, वे निकटवारती तराई के जंगलों में रहने के स्थान को जनकपुर कहलाने लगा था । रामायण के अनुसार जनक राजाओं में सबसे प्रसिद्ध सीरध्वज जनक विद्वान एवं धार्मिक और शिव के प्रति इनकी अगाध श्रद्धा थी। इनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने इन्हें अपना धनुष प्रदान किया था।

यह धनुष अत्यंत भारी था। त्रेतायुग में जनक की पुत्री सीता धर्मपरायण थी । वह नियमित रूप से पूजा स्थल की साफ-सफाई स्वयं करती थी। एक दिन की बात है जनक जी जब पूजा करने आए तब उन्होंने देखा कि शिव का धनुष एक हाथ में लिये हुए सीता पूजा स्थल की सफाई कर रही हैं। इस दृश्य को देखकर जनक जी आश्चर्य चकित रह गये कि इस अत्यंत भारी धनुष को एक सुकुमारी ने कैसे उठा लिया। इसी समय जनक जी ने संकल्प  कर लिया कि सीता का पति वही होगा जब शिव के द्वारा दिये गये  धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने में सफल होगा। अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार राजा जनक ने धनुष-यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ से संपूर्ण संसार के राजा, महाराजा, राजकुमार तथा वीर पुरुषों को आमंत्रित किया गया। समारोह में अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र रामचंद्र और लक्ष्मण अपने गुरु विश्वामित्र के साथ उपस्थित थे। जब धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने की बारी आई तो वहाँ उपस्थित किसी भी व्यक्ति से प्रत्यंचा तो दूर धनुष हिला तक नहीं। राजा जनक के इस वचन को सुनकर लक्ष्मण के आग्रह और गुरु की आज्ञा पर रामचंद्र ने ज्यों ही धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई त्यों ही धनुष तीन टुकड़ों में विभक्त हो गया। बाद में अयोध्या से बारात आकर रामचंद्र और जनक नंदिनी जानकी का विवाह माघ शीर्ष शुक्ल पंचमी को जनकपुरी में संपन्न हुआ। कहते हैं कि कालांतर में त्रेता युगकालीन जनकपुर का लोप हो गया। करीब साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व महात्मा सूरकिशोर दास ने जानकी के जन्मस्थल का पता लगाया और मूर्ति स्थापना कर पूजा प्रारंभ की। तत्पश्चात आधुनिक जनकपुर विकसित हुआ। नौलखा मंदिर: जनकपुर में राम-जानकी के कई मंदिर हैं। इनमें सबसे भव्य मंदिर का निर्माण भारत के टीकमगढ़ की महारानी वृषभानु कुमारी बुंदेला ने करवाया। पुत्र प्राप्ति की कामना से महारानी वृषभानु कुमारी बुंदेला ने अयोध्या में ‘कनक भवन मंदिर’ का निर्माण करवाया परंतु पुत्र प्राप्त न होने पर गुरु की आज्ञा से पुत्र प्राप्ति के लिए जनकपुरी में १८९६ ई. में जानकी मंदिर का निर्माण करवाया। मंदिर निर्माण प्रारंभ के १ वर्ष के अंदर ही वृषभानु कुमारी को पुत्र प्राप्त हुआ। जानकी मंदिर के निर्माण हेतु नौ लाख रुपए का संकल्प किया गया था। फलस्वरूप उसे ‘नौलखा मंदिर’ भी कहते हैं। परंतु इसके निर्माण में १८ लाख रुपया खर्च हुआ। जानकी मंदिर के निर्माण काल में ही वृषभानु कुमारी के निधनोपरांत उनकी बहन नरेंद्र कुमारी ने मंदिर का निर्माण कार्य पूरा करवाया। बाद में वृषभानुकुमारी के पति ने नरेंद्र कुमारी से विवाह कर लिया। जानकी मंदिर का निर्माण १२ वर्षों में हुआ लेकिन इसमें मूर्ति स्थापना १८१४ में ही कर दी गई और पूजा प्रारंभ हो गई।

जानकी मंदिर को दान में बहुत-सी भूमि दी गई है जो इसकी आमदनी का प्रमुख स्रोत है। जानकी मंदिर परिसर के भीतर प्रमुख मंदिर के पीछे जानकी मंदिर उत्तर की ओर ‘अखंड कीर्तन भवन’ है जिसमें १९६१ ई. से लगातार सीताराम नाम का कीर्तन हो रहा है। जानकी मंदिर के बाहरी परिसर में लक्ष्णण मंदिर है जिसका निर्माण जानकी मंदिर के निर्माण से पहले बताया जाता है। परिसर के भीतर ही राम जानकी विवाह मंडप है। मंडप के खंभों और दूसरी जगहों को मिलाकर कुल १०८ प्रतिमाएँ हैं। विवाह मंडप (धनुषा) : इस मंडप में विवाह पंचमी के दिन पूरी रीति-रिवाज से राम-जानकी का विवाह किया जाता है। जनकपुरी से १४ किलोमीटर ‘उत्तर धनुषा’ नामक स्थान है। बताया जाता है कि रामचंद्र जी ने इसी जगह पर धनुष तोड़ा था। पत्थर के टुकड़े को अवशेष कहा जाता है। पूरे वर्षभर ख़ासकर ‘विवाह पंचमी’ के अवसर पर तीर्थयात्रियों का तांता लगा रहता है। नेपाल के मूल निवासियों के साथ ही अपने देश के बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, राजस्थान तथा महाराष्ट्र राज्य के अनगिनत श्रद्धालु नज़र आते हैं।

जनकपुर में कई मंदिर और तालाब हैं। ‘विहार कुंड’ तालाब के पास ३०-४० मंदिर हैं।  संस्कृत विद्यालय तथा विश्वविद्यालय  है। विद्यालय में छात्रों को रहने तथा भोजन की निःशुल्क व्यवस्था है। विद्यालय ‘ज्ञानकूप’ के नाम से जाना जाता है। मंडप के चारों ओर चार छोटे-छोटे ‘कोहबर’ हैं जिनमें सीता-राम, माण्डवी-भरत, उर्मिला-लक्ष्मण एवं श्रुतिकीर्ति-शत्रुघ्र की मूर्तियां हैं। राम-मंदिर के विषय में जनश्रुति है कि अनेक दिनों तक सुरकिशोरदासजी ने जब एक गाय को वहां दूध बहाते देखा था । स्थलीय खुदाई करायी जिसमें श्रीराम की मूर्ति मिली। वहां एक कुटिया बनाकर उसका प्रभार एक संन्यासी को सौंपा, इसलिए अद्यपर्यन्त उनके राम मंदिर के महन्त संन्यासी ही होते हैं जबकि वहां के अन्य मंदिरों के वैरागी हैं। जनकपुर में  कुंड में  रत्ना सागर, अनुराग सरोवर, सीताकुंड है । मंदिर से कुछ दूर ‘दूधमती’ नदी के बारे में कहा जाता है कि जुती हुई भूमि के कुंड से उत्पन्न शिशु सीता को दूध पिलाने के उद्देश्य से कामधेनु ने  धारा बहायी, उसने उक्त नदी का रूप धारण कर ली थी ।

सत्येन्द्र कुमार पाठक 

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