धर्मक्षेत्र
पुरणों के अनुसार वैशाख शुक्ल तृतीया को शुभ कार्य करने पर अक्षय फल मिलता है। अक्षय तृतीया को विभिन्न क्षेत्रों में अक्षय तृतीया , आखा तीज , अक्षय तीज कहा गया है । अक्षय तृतीया का सर्वसिद्ध मुहूर्त में विवाह, गृह-प्रवेश, वस्त्र-आभूषणों की खरीददारी या घर, भूखण्ड, वाहन आदि की खरीददारी , नवीन वस्त्र, आभूषण आदि धारण करने और नई संस्था, समाज आदि की स्थापना या उदघाटन का कार्य श्रेष्ठ , पितरों को किया गया तर्पण तथा पिन्डदान अथवा किसी और प्रकार का दान, अक्षय फल प्राप्ति , गंगा स्नान करने से तथा भगवत पूजन से समस्त पाप नष्ट हो जाते एवं जप, तप, हवन, स्वाध्याय और दान भी अक्षय हो जाता है। यह तिथि यदि सोमवार तथा रोहिणी नक्षत्र के दिन आए तो इस दिन किए गए दान, जप-तप का फल बहुत अधिक बढ़ जाता हैं। इसके अतिरिक्त यदि यह तृतीया मध्याह्न से पहले शुरू होकर प्रदोष काल तक रहे तो बहुत ही श्रेष्ठ मानी जाती है। यह भी माना जाता है कि आज के दिन मनुष्य अपने या स्वजनों द्वारा किए गए जाने-अनजाने अपराधों की सच्चे मन से ईश्वर से क्षमा प्रार्थना करे तो भगवान उसके अपराधों को क्षमा कर देते हैं और उसे सदगुण प्रदान करते हैं, अतः आज के दिन अपने दुर्गुणों को भगवान के चरणों में सदा के लिए अर्पित कर उनसे सदगुणों का वरदान माँगने की परम्परा भी है।
अक्षय तृतीया के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर समुद्र या गंगा स्नान करने के बाद भगवान विष्णु की शान्त चित्त होकर विधि विधान से पूजा करने का प्रावधान है। नैवेद्य में जौ या गेहूँ का सत्तू, ककड़ी और चने की दाल अर्पित किया जाता है। तत्पश्चात फल, फूल, बरतन, तथा वस्त्र आदि दान करके ब्राह्मणों को दक्षिणा दी जाती है।[4] ब्राह्मण को भोजन करवाना कल्याणकारी समझा जाता है। सत्तू अवश्य खाने तथा नए वस्त्र और आभूषण पहनने , गौ, भूमि, स्वर्ण पात्र इत्यादि का दान , वसन्त ऋतु के अन्त और ग्रीष्म ऋतु का प्रारम्भ होने के कारण अक्षय तृतीया के दिन जल से भरे घडे, कुल्हड, सकोरे, पंखे, खडाऊँ, छाता, चावल, नमक, घी, खरबूजा, ककड़ी, चीनी, साग, इमली, सत्तू आदि गरमी में लाभकारी वस्तुओं का दान पुण्यकारी अक्षय तीज है। लक्ष्मी नारायण की पूजा सफेद कमल अथवा सफेद गुलाब या पीले गुलाब से करना चाहिये। सर्वत्र शुक्ल पुष्पाणि प्रशस्तानि सदार्चने। दानकाले च सर्वत्र मन्त्र मेत मुदीरयेत्॥ अर्थात सभी महीनों की तृतीया में सफेद पुष्प से किया गया पूजन प्रशंसनीय माना गया है। भविष्य पुराण के अनुसार वैशाख शुक्ल तृतीया तिथि की युगादि तिथियों में गणना , सतयुग और त्रेता युग का प्रारंभ तिथि से हुआ है।
भगवान विष्णु ने नर-नारायण, हयग्रीव और परशुराम जी का अवतरण , ब्रह्माजी के पुत्र अक्षय कुमार का आविर्भाव हुआ था। श्री बद्रीनाथ जी की प्रतिमा स्थापित कर पूजा और श्री लक्ष्मी नारायण के दर्शन किए प्रसिद्ध तीर्थ स्थल बद्रीनारायण के कपाट पुनः खुलते हैं। वृन्दावन स्थित श्री बाँके बिहारी जी मन्दिर में श्री विग्रह के चरण दर्शन होते हैं । जी.एम. हिंगे के अनुसार तृतीया 41 घटी 21 पल होती है तथा धर्म सिन्धु एवं निर्णय सिन्धु ग्रन्थ के अनुसार अक्षय तृतीया 6 घटी से अधिक होना चाहिए। पद्म पुराण के अनुसार तृतीया को अपराह्न व्यापिनी मानना चाहिए। महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था और द्वापर युग का समापन एवं कलियुग के प्रारम्भ दिवस कहा गया है । मदनरत्न के अनुसार: अस्यां तिथौ क्षयमुर्पति हुतं न दत्तं। तेनाक्षयेति कथिता मुनिभिस्तृतीया॥ उद्दिष्य दैवतपितृन्क्रियते मनुष्यैः। तत् च अक्षयं भवति भारत सर्वमेव॥ पुरणों के अनुसार प्राचीन काल में धर्मदास न वैश्य की सदाचार, देव और ब्राह्मणों के प्रति काफी श्रद्धा थी। अक्षय व्रत के महात्म्य को सुनने के पश्चात उसने इस पर्व के आने पर गंगा में स्नान करके विधिपूर्वक देवी-देवताओं की पूजा की, व्रत के दिन स्वर्ण, वस्त्र तथा दिव्य वस्तुएँ ब्राह्मणों को दान में दी। अनेक रोगों से ग्रस्त तथा वृद्ध होने के बावजूद भी उसने उपवास करके धर्म-कर्म और दान पुण्य किया। यही वैश्य दूसरे जन्म में कुशावती का राजा बना था । अक्षय तृतीया के दिन किए गए दान व पूजन के कारण वह बहुत धनी प्रतापी बना। वह धर्मदास धनी और प्रतापी राजा था कि त्रिदेव तक उसके दरबार में अक्षय तृतीया के दिन ब्राह्मण का वेष धारण करके उसके महायज्ञ में शामिल होते थे। अपनी श्रद्धा और भक्ति का उसे कभी घमण्ड नहीं हुआ और महान वैभवशाली होने के बावजूद वह धर्म मार्ग से विचलित नहीं हुआ। धर्मदास राजा आगे चलकर राजा चंद्रगुप्त का जन्म वैशाख शुक्ल तृतीया को जन्म हुआ था । स्कंद पुराण और भविष्य पुराण में उल्लेख है कि वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया को रेणुका के गर्भ से भगवान विष्णु ने परशुराम रूप में जन्म लिया। कोंकण और चिप्लून के परशुराम मंदिरों में भगवान परशुराम जयन्ती बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है। दक्षिण भारत में परशुराम जयन्ती को विशेष महत्व दिया जाता है। परशुराम जयन्ती होने के कारण भगवान परशुराम के आविर्भाव की कथा भी सुनी जाती है। इस दिन परशुराम जी की पूजा करके उन्हें अर्घ्य देने का बड़ा माहात्म्य माना गया है। सौभाग्यवती स्त्रियाँ और क्वारी कन्याएँ इस दिन गौरी-पूजा करके मिठाई, फल और भीगे हुए चने बाँटती हैं, गौरी-पार्वती की पूजा करके धातु या मिट्टी के कलश में जल, फल, फूल, तिल, अन्न आदि लेकर दान करती हैं। अक्षय तृतीया के दिन जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय भृगुवंशी परशुराम का जन्म हुआ था।
भगवान परशुराम की माता और विश्वामित्र की माता के पूजन के बाद प्रसाद देते समय ऋषि ने प्रसाद बदल कर दे दिया था। जिसके प्रभाव से परशुराम ब्राह्मण होते हुए क्षत्रिय स्वभाव के थे और क्षत्रिय पुत्र होने के बाद विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाए थे । जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान ने एक वर्ष की पूर्ण तपस्या करने के पश्चात इक्षु (शोरडी-गन्ने) रस से पारायण किया था। जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर श्री आदिनाथ भगवान ने सत्य व अहिंसा का प्रचार करने एवं अपने कर्म बन्धनों को तोड़ने के लिए संसार के भौतिक एवं पारिवारिक सुखों का त्याग कर जैन वैराग्य अंगीकार कर लिया। सत्य और अहिंसा के प्रचार करते-करते आदिनाथ हस्तिनापुर का गजपुर पधारे थे । हस्तिनापुर की राजधानी गजपुर में आदिनाथ का पौत्र राजा सोमनाथ का शासन था। जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का आगमन सुनकर सम्पूर्ण नगर दर्शनार्थ उमड़ पड़ा सोमप्रभु के पुत्र राजकुमार श्रेयांस कुमार ने प्रभु को देखकर उसने आदिनाथ को पहचान लिया और तत्काल शुद्ध आहार के रूप में प्रभु को गन्ने का रस दिया, जिससे आदिनाथ ने व्रत का पारायण किया। जैन धर्मावलंबियों का गन्ने के रस को इक्षुरस को महत्वपूर्ण मन जाता है। इक्षु तृतीया एवं अक्षय तृतीया के नाम से विख्यात हो गया।भगवान श्री आदिनाथ ने 400 दिवस की तपस्या के पश्चात पारण किया था। जैन धर्म में वर्षीतप से सम्बोधित किया जाता है। जैन धर्मावलम्बी वर्षीतप की आराधना कर अपने को धन्य समझते हैं, यह तपस्या प्रति वर्ष कार्तिक के कृष्ण पक्ष की अष्टमी से आरम्भ और दूसरे वर्ष वैशाख के शुक्लपक्ष की अक्षय तृतीया के दिन पारन कर पूर्ण की जाती है। बुन्देलखण्ड में अक्षय तृतीया से प्रारम्भ होकर पूर्णिमा तक बडी धूमधाम से उत्सव में कुँवारी कन्याएँ अपने भाई, पिता तथा गाँव-घर और कुटुम्ब के लोगों को शगुन बाँटती हैं और गीत गाती हैं। अक्षय तृतीया को राजस्थान में वर्षा के लिए शगुन निकाला जाता है। लड़कियाँ झुण्ड बनाकर घर-घर जाकर शगुन गीत गाती और लड़के पतंग उड़ाते हैं। यहाँ इस दिन सात तरह के अन्नों से पूजा की जाती है। मालवा में नए घड़े के ऊपर खरबूजा और आम के पल्लव रख कर पूजा तथा कृषि कार्य का आरम्भ करते है। वैशाख शुक्ल पक्ष तृतीया गुरुवार , रोहाणी नक्षत्र , धृति योग में त्रेतायुग का प्रारंभ , सतयुग में ब्रह्मा जी का पुत्र अक्षय का अवतरण , सर्वजीत संबत्सर , वैशाख शुक्ल तृतीया , मंगलवार ,पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र ,वरीयान योग त्रेतायुग में भगवान परशुराम , सतयुग में नर नारायण , भगवान विष्णु के अवतार हयग्रीव का अवतरण हुआ था तथा भगवान ऋषभदेव एवं जैन धर्म के तीर्थंकर आदिनाथ का इक्षुरस पीने के बाद विश्व को अहिंसा , प्रेम और सौहार्द का मंत्र दिया था ।
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सत्येन्द्र कुमार पाठक