पुरातन काल से ही भारतीय संस्कृति अंतर्मुखी विचार धारा की प्रतिपादक रही |. पंच तत्व रचित देह को भी मिथ्या कहा , परंतु उसी शरीर मे बसी आत्मा को तत्वसार कहा| तथा इसे जीव , परमात्म अंश कहा| सारी की सारी विषय वस्तु इसी तत्वसार पर केंद्रित है यानि भारतीय संस्कृति जहाँ आत्मा को अधिष्ठाता मानते हुए अध्यात्म शास्त्र पर आधारित है| जन्म- मृत्यु और तत्वसार , कर्म और और कर्मफल को छोंडकर जग मिथ्या यानि देंह से परे परमात्मा की खोज वहीं पाश्चात्य शास्त्र भौतिक शास्त्र का प्रतिपादक रहा है, जो है देंह है, दैहिक सुख है तत्वो का मिलन जन्म है और विघटन मृत्यु| अर्थात पाश्चात्य पूरी तरह तत्वों के अनुसंधान में लगा रहा| जहाँ भौतिकता से दैहिक सुखो की बृद्धि हुई, वहीं देंह केवल भोग की वस्तु बनकर रह गयी| बहुविवाह एवम् तलाक भी आम बात हो गयी| और अब बिना विवाह आपसी सहमति से साथ साथ रहना, ये पाश्चात्य की ही देन है भारतीय संस्कृति को एक नें जहाँ आत्म स्वरूप की खोज के लिए देंह की उपेक्षा की , बैरागी बनकर तपाया मिथ्या शरीर को मानकर| वहीं तत्व खोज की तपस्चर्या में देंह का अति अनुरागी भोगी बन बैठा| शरीर का दोनों संस्कृतियों नें अति दोहन कियाअति सर्वत्र वर्जते*देखिए जल का भौतिक रूप बर्फ और सूक्ष्म रूप वाष्प| बर्फ से प्यास कब बुझती और वाष्प की अती भी दाहक है,, केवल और केवल जल ही जीवन दायक| हाँलाकि वाष्प से रेल इंजन आदि कई अविष्कार हुए जो मानवोपयोगी हैं।
इस शरीर के रहते ही तत्व एवम् तत्वसार दोनों की खोज हुई , फिर इस देंह का दोहन क्यों,,, शायद यही वह बहुत बडी भूल रही दोनों संस्कृतियों की,, एक जगह देंह मिथ्या तो दूसरी जगह मात्र भोग का साधन भारत की सामाजिक सोंच को समझनें के लिए , उसकी वर्ण व्यवस्था, शिक्षा -दीक्षा, संस्कार- संस्कृति को धनात्मक रूप मे समझना अति अनिवार्य है| एवम् समय के साथ आए बदलाओं पर भी विचार करना जरूरी— पुरातन काल में संस्कारिक सरोकारिक एवम् सास्कृतिक शिक्षा – दीक्षा के केंद्र गुरुकुल हुआ करते थे| वहीँ पर संस्कृतिक सरोकारिक शिक्षा के साथ वर्ण व्यवस्था का भी निर्धारण होता था शिक्षार्थी के गुण एवम् स्वभाव ललक को देखकर| मेधाशक्ति एवम् आचरण के धनीं शिक्षार्थियों का बृाह्मण वर्ण दिया जाता था , जो भविष्य के शिक्षक एवम् राजकाज के नीति निर्धारक होते थे| जो बाहुबली न्यायप्रिय होते थे उन्हे क्षत्रिय तथा मितब्ययी एवम् भविष्य अर्थवेत्ताओ को वाणिक वर्ण दिया जाता था |चौथा वरण जो किसी एक विषय का विशेषज्ञ होता था उसे सूद्र वर्ण में ऱखा जाता था, वास्तव में यह वर्ग सामाजिक ढाँचे की धूरी होता था | जैसे बिना पैरों के शरीर पंगु हो जाता है उसी प्रकार इस वर्ग के बिना सामाजिक परिकल्पना पंगु रहती| यह राजा को कर देकर एवम् कई समाजोपयोगी वस्तुओ का निर्माण कर्ता थे| वर्ण व्यवस्था जन्म कुल से नही बल्कि कर्मानुसार होती थी , अन्यथा मछवारे की कुँवारी कन्या से उत्पन्न बालक कभी भी बृम्हर्षि वेद ब्यास नही बन पाते और न ही पाण्डव और कौरव क्षत्रिय कहलाते और नाही बृाह्मण कुल में उत्पन्न रावण राक्षस कहलाता ।
शनैः शनैः मनुष्य भौतिक सुखो के आधीन होकर स्वार्थी होता चला गया| स्वार्थ अंधता में खोकर शिक्षक यानि गुरु शिक्षा का व्यापार करनें लगा एवम् राजशाही सुख के कारण पक्षपाती बन बैठा, राजा भोगविलासी चाटुकारिता प्रिय एवम् वाणिक जमाखोर , सूदखोर बन बैठा और तीनों वर्णो नें मिलकर चतुर्थ वर्ग का दोहन शुरू कर दिया | यहीं से शुरू हुई सामाजिक अवधारणा को ग्रहण लगना और धुरी को ही तुच्छ भी कहा जानें लगा|वर्ण व्यवस्था कर्मप्रधान न रहकर वंशानुगत हो गयी हमारे विचारकों नें वस्तुओं के व्यक्तित्व को ही नही पहचाना बल्कि देवत्व का सृजन किया वस्तुओं में| यूँ ही नही नदी, सागर ,पेंडो , आग , हवा, जल आदि की पूजा शुरू की | वही विचारक जिनको समाजहित में सोचनां था वह अपने ही स्वार्थ सिद्धि के लिए उसी देवत्व का डर दिखाकर समाज को दिग्भ्रमित कर अपना उल्लू भी सीधा करनें लगे और आज के विचारक तो बस लकीर के फकीर बनें हुए है| सारी की सारी विचारधारा नास्तिक- आस्तिक के सापेक्ष में घूम रही है और हम है जो हमारे पूर्वज जैसे राम, कृष्ण, बुद्ध , गौतम और नानक आदि के आचरणो को अपने आचरण मे ढालनें के बजाय बस उन्हे भगवान मानकर पूजे जा रहे है , उनका गुणगान किए जा रहें हैं |
उनके अवगुणो से सबक लेना दूर अवगुणो पर विचार भी नही करना चाहते है, यदि आस्तिक है तो| खुदा न खास्ता यदि नास्तिक है तो फिर सोनें पर सुहागा| कुल मिलाकर वही ढाख के तीन पात| काश उन महापुरुषो के गुण दोषो की विवेचनाकर , उनके गुणो को अपने आचरण में उतारते और उनकी गल्तियों से भी सबक लेकर अपने आचरण व संस्कृति को सुदृढ बनाते वहीं पाश्चात्य अपनें देवदूत के ईशामसीह के आचरण को आत्मसात कर पाता,,, देंह और भौतिकता से परे भी कुछ है,, तो विश्व का माहौल ही कुछ और होता पाश्चात्य संस्कृति भले ही हमारी विचारधारा के विपरीत है पर उनकी कर्तब्य निष्ठा , परायणता , स्वच्छता एवम देश के प्रति लगन बेजोड है और पाखण्ड से परे।
मैं खुले दिल से स्वीकारता हूँ पाश्चात्य संस्कृति के विचारको एवम् विश्लेषकों को भारतीय विचारको से कम करके नही आँका जा सकता है बस अंतर है तो विषयवस्तु का,,, लेकिन दोनों संस्कृतियों ने वास्तव में पाया तो बहुत कुछ पर देंह का दोहन ही किया ,, एक नें अति अनुरागी बन कर तथा दूसरे नें बैरागी बनकर,, यही कारण है दोनों संस्कृतियाँ सामर्थ्य वान होते हुए भी अशांत है अधूरी हैं,,, काश सारा विश्व देंह सुख के साथ अध्यात्मिक अनुभूतियों का भी आनंद ले पाता,, फूट पडती एक अविरल इंसानियत की गंगा हम सबके भागीरथी प्रयास से ,,, और विश्व सराबोर हो जाता वसुधैव कुटुम्बकम की रस धार मे
गोप कुमार मिश्र
प्रतापनगर, जयपुर राजस्थान