ज्ञान के अवतरण का, नारीशक्ति के प्रति श्रद्धा का महापर्व
30 अगस्त को श्रावणी एवं रक्षाबंधन का पर्व है मान्यता है कि इसी दिन एकोऽहं बहुस्याम्’ की ब्रह्म आकांक्षा पूर्ण हुई थी। एक से दो और दो से अनेक होने को विकास यात्रा पर सभी का एकदूसरे से सहयोग, संपर्क और स्नेह की डोर से बंधे होने की दिव्य एवं पावन भावना इस पर्व का मर्म है। श्रावणी धार्मिक स्वाध्याय के प्रचार का पर्व है सद्वज्ञान् बुद्धि विवेक और धर्म की वृद्धि के लिए इसे विनिर्मित किया गया, इसलिए इसे ब्रह्मपर्व भी कहते हैं। श्रावणी पर रक्षाबंधन बड़ा ही हृदयग्राही है। यह ऋषि परंपरा के अनुरूप मर्यादाओं के बंधन से परस्पर एकदूसरे को बाँधने व अपने कर्तव्य निर्वाह का आश्वासन देने का अनोखा ढंग है।श्रावणी वैदिक पर्व है प्राचीनकाल में ऋषि मुनि इसी दिन से वेद पारायण आरंभ करते थे इसे उपाकर्म’ कहा जाता था। वेद का अर्थ है- सद्वज्ञान् और ऋषि का तात्पर्य है-वे आप्त महामानव, जिनकी अपार करुणा के फलस्वरूप वह सुलभ सरल हो सका। सद्वज्ञान् का वरण जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक है- जिनसे वह प्राप्त हुआ था, जिनके परिश्रम, त्याग, तप व करुणा से सुगम हो सका, उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाए श्रद्धानवत हुआ जाए। वेद, सद्वज्ञान् और उनके द्रष्टा ऋषि- मनीषियों को भी उतना ही श्रद्धास्पद मानना चाहिए। श्रावणी पर्व पर द्विजत्व के संकल्प का नवीनीकरण किया जाता है उसके लिए परंपरागत ढंग से तीर्थ अवगाहन, दशस्नान, हेमाद्रि संकल्प एवं तर्पण आदि कर्म किए जाते हैं। इस पर्व पर पुराना यज्ञोपवीत बदला जाता है और नया पहना जाता है तथा शिखा सिंचन किया जाता है। शिखा और यज्ञोपवीत में निहित शिक्षाओं का मर्म गहन और गूढ़ है, परन्तु उन प्रतीकों के माध्यम से भरी गई निष्ठाओं का ज्ञान, विवेक और कर्मनिष्ठा, कर्तव्य मर्यादा को सदैव स्मरण रखा जाए तो कहना न होगा कि मनुष्य अपने जीवन का संपूर्ण आनंद अपनी परिपूर्णता के साथ उठाता हुआ सुखपूर्वक जी सकता है। शिखा के रूप में विवेकशीलता को जीवन में सर्वोपरि प्रतिष्ठा देना तथा यज्ञोपवीत के माध्यम से कर्तव्यनिष्ठा को अपनाए रहना चाहिए। इन दोनों ज्ञान और कर्म के समन्वय से जीवन प्रगति के पथ पर अग्रसर होकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है।
श्रावणी के कर्मकांड में पाप निवारण के लिए हेमाद्रि संकल्प कराया जाता है, जिसमें भविष्य में पातकों, उपपातकों और महापातकों से बचने, परद्रव्य अपहरण न करने, परनिंदा न करने, आहार-विहार का ध्यान रखने हिंसा न करने, इंदियों का सदुपयोग करने और सदाचरण करने की प्रतिज्ञा ली जाती है। यह सृष्टि नियंता के संकल्प से उपजी है हर व्यक्ति अपने लिए एक नई सृष्टि करता है। यह सृष्टि यदि ईश्वरीय योजना के अनुकूल हुई तब तो कल्याणकारी परिणाम उपजते हैं, अन्यथा अनर्थ का सामना करना पड़ता है। अपनी सृष्टि में चाहने, सोचने तथा करने में कहीं भी विकार आया हो, उसे हटाने तथा नई शुरुआत करने के लिए हेमाद्रि संकल्प करते हैं। ऐसी क्रिया और भावना ही कर्मकांड
का प्राण है।
वृतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्।
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते ॥ व्रत से दीक्षा मिलती है, दीक्षा के समय दक्षिणा दी जाती है। दक्षिणा से श्रद्धा बढ़ती है, श्रद्धा से सत्य की प्राप्त होती है। वेद कहते हैं कि व्रत वह शक्ति है, जिसके द्वारा मनुष्य की सोई हुई शक्तियाँ जागृत होती है। असंभव कार्यों को संभव होते देखकर उसकी निष्ठा बढ़ती है। ज्यों-ज्यों उसको निष्ठा की वृद्धि होती जाती है, त्यों-त्यों वह त्याग की भूमिका में पदार्पण करता है। त्याग द्वारा सक्तियों का विकास होकर उसकी श्रद्धा में वृद्धि होती है, श्रद्धा की दृढ़ता से सत्य का मार्ग खुल जाता है। अतः हमारे धार्मिक कर्मकांडों में व्रतों को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। हेमादि संकल्प के पश्चात शिखा सिंचन किया जाता है। शिखा को देव संस्कृति का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक माना जाता है। श्रेष्ठता और सर्वोत्कृष्टता का आचरण और अनुकरण करके ही विशिष्ट लाभ मिल सकता है। विचार सर्वोच्च साधन है। उन्हें उच्च आदर्शों से युक्त रखना चाहिए, इसके लिए स्वाध्याय आदि प्रयास नियमित चलाते रहना चाहिए, शिखा सर्वोपरि स्थान पर स्थित रहकर हमारी सांस्कृतिक महानता का बोध कराती है। इसी भाव से शिखा की स्थापना की जाती है तदुपरांत यज्ञोपवीत नवीनीकरण की प्रक्रिया चलती है जिनको यज्ञोपवीत धारण करना हो, उसे यथोचित व्यवस्था से आचार्य दे सकते हैं।
श्रावणी पर्व पर सामान्य देव पूजन के अतिरिक्त विशेष पूजन के लिए ब्रह्मा वेद एवं ऋषियों का आह्वान किया जाता ब्रह्मा सृष्टिकर्त्ता है। ब्राह्मी चेतना का वरण करने, अनुशासन पालन से ही अभीष्ट प्राप्ति हो सकती है उस विद्या को अपनाने, जानने एवं अभ्यास में लाने वाले ही श्रेष्ठता के प्रतीक होते हैं। सृजनकर्ता ब्रह्मा का आव्हान -पूजन करके अपने अंदर विनाशक तत्वों को निर्मूल करने एवं सूजनशील विशेषताओं का अभिवर्द्धन करने का भाव किया जाता है। आज की सर्वोपरि समस्या है कि हमारी सारी शक्तियाँ विनाश के लिए लगी हुई हैं, उन्हें उलटकर यदि श्रेष्ठ सृजन की दिशा में लगा दें तो विश्व वसुधा स्वर्ग में परिणत हो सकती है। इस पर्व पर ज्ञान के अवतरण की वेदों के रूप में अभ्यर्थना की जाती है, वेद अर्थात सद्ज्ञान। ज्ञान से ही विकास का आरंभ होता है। अज्ञान ही अवनति का मूल है अज्ञान से अशक्ति पनपती है और अशक्ति अभाव को जन्म देती है। आज के पतन व पीड़ा के पीछे अज्ञान का हाथ है। अतः वेदरूपी ज्ञान का आह्नान करके अपने अंदर बुझे हुए ज्ञान को प्रज्वलित करने की भावना की जाती है। ज्ञान का प्रत्यक्षीकरण करने के लिए वेदपूजन किया जाता है। ऋषि पूजन के पीछे उच्चतम आदर्श की परिकल्पना निहित है। ऋषि जीवन ने ही महानतम जीवनचर्या का विकास और अभ्यास करने में सफलता पाई थी। उनके अनुभवों निर्देशों का लाभ उठाने के लिए ही ऋषि पूजन किया जाता है। अमीरी का चकाचौंध नहीं, महानता का चयन ही बुद्धिमत्तापूर्ण है। भ्रष्टता के वैभव में, चमक-दमक में तो केवल अहं की तुष्टि ही हो सकती है, मन की शांति नहीं हो सकती है। ऋषिजीवन आंतरिक समृद्धि एवं ऐश्वर्य का प्रतीक है। यह सौम्य जीवन के सुख और मधुरता का पर्याय है। आज के समाज की भटकन का कारण ऋषित्व का घनघोर अभाव है। इस पूजन से इन्हीं तत्त्वों की वृद्धि की कामना की जाती है
रक्षाबंधन का पर्व भी इसी दिन मनाया जाता है। रक्षासूत्रों को ऋषि, मुनि, ब्राह्मण वेदमंत्रों से अभिमंत्रित करते थे तप और त्याग की शक्ति का मिलन एवं वेदमंत्रों के साथ योग-संयोग अति प्रभावशाली होता है। इसी क्रम में श्रेष्ठ आचार्य अपने यजमानों को रक्षासूत्र बाँधते हैं उन्हें दिव्य अनुशासन में आबद्ध कर कल्याणकारी प्रगति का अधिकारी बनाने के लिए अपने पवित्र कर्तव्य के पालन का यह एक प्रकार से आश्वासन है, जो देव साक्षी में किया जाता है इसके बिना रक्षासूत्र का उद्देश्य पूर्ण नहीं होता है।आज रक्षासूत्र का महनीय स्वरूप मात्र रेशम के रंग-बिरंगे एवं महँगे डोरों के रूप में सिमटकर रह गया है राखी की डोर आज एक फैशन बन गई है, इसमें निहित मर्म का लोप हो गया है। यदि इस त्योहार की क्रिया और भावना जीवंत होती तो रक्षा करने के लिए बंधवाई गई डोरी की लाज रखी जाती और उनकी रक्षा हेतु जीवन को दांव पर लगा देते आज यह डोरी निष्प्राण हो चुकी है और यही कारण है कि नारी की अस्मिता व अस्तित्व खतरे में पड़ गए है एक भाई भी बहन की रक्षा की जिम्मेदारी उठा ले तो नारी के प्रति शोषण और अत्याचार में काफी कमी आ सकती है रक्षाबंधन पर्व को मुरदानमी से मरदानगी में जगाने, उठाने का महापर्व है काश ऐसा होता और बहनों को फिर से जीने के लिए आजादी मिलती।
आज देश, धर्म, समाज, संस्कृति की चारों सीमाएँ टूट के कगार पर हैं। उन्हें सुरक्षित रखने के लिए किस प्रकार सर्वसाधारण को धर्मयोद्धा के रूप में, सृजन सेना के सैनिक के रूप में कटिवद्ध किया जाए, यह महनीय उद्देश्य रक्षाबंधन के सूत्रों में समाहित है। इन सूत्रों में नारी की पवित्रता और गरिमा भी समाहित है जिसे योजनाबद्ध एवं सामाजिक रूप से क्रियान्वित कर उपलब्ध किया जा सकता है। इन दिनों कला के नाम पर नारी के श्रृंगार और सुंदरता को जिस कदर व्यवसाय बनाने की कुचेष्टा कलाकार, साहित्यकार, चित्रकार, व्यवसायी विज्ञापनकर्ता आदि ने की है, उसे रोकने मिटाने की भी योजना इस पर्व में समाहित है। नारी को बहन, पुत्री और माता की दृष्टि से देखने की भावना तो इसका मूल उद्देश्य है ही।नारी के प्रति पवित्र भावना की शक्ति का प्रमाण पौराणिक एवं ऐतिहासिक कथानकों में मिलता है। इंद्र विजय को इसी सूत्र के संदर्भ में देखा जाता है। अर्जुन, शिवाजी, छत्रसाल आदि महान पुरुषों की पवित्र दृष्टि में भी इस पर्व परंपरा की झलक झाँकी मिलती है कि हम नारी को सदैव सम्माननीय एवं पवित्र भाव से देखें। इसका क्रियापक्ष भी बहुत महत्वपूर्ण है।
रक्षाबंधन पूज्य श्रद्धास्पद व्यक्तियों अथवा कन्याओं से कराया जाता है। व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर भी राखी बाँधने की परंपरा है, परंतु इस परंपरा के भावपक्ष को दृढ़ता से रखते हुए ही इसकी समुचित महता को जाना और अपनाया जा सकता है।आवश्यकता है हम सब श्रावणी के पुण्य, पावन दिवस पर श्रावणी के संकल्प के साथ यह व्रत भी ग्रहण करें कि हम अबला को न सताएँ और समय पढ़ने पर असहाय की रक्षा हेतु कटिबद्ध हों।श्रावणी और रक्षाबंधन की स्मृति को प्रगाढ़ करने के लिए वृक्षारोपण का भी प्रावधान है। वृक्ष परोपकार के प्रतीक हैं, जो बिना कुछ मांगे हमको शीतल छाया, फल, हरियाली प्रदान करते हैं। मानव जीवन के ये करीब के सहयोगी हैं और सदैव हमारी सेवा में तत्पर रहते हैं। अतः हमें भी इनकी सेवा तथा देख-भाल करनी चाहिए। वृक्षारोपण इस युग की सर्वोपरि माँग है। शास्त्रोक्त मान्यता है कि अनुकूल मौसम में वृक्षारोपण करने पर अनंत गुना पुण्य लाभ मिलता है। अतः श्रावणी पर्व से अपने जीवन को सत्पथ पर बढ़ाने रक्षासूत्रद्वारा नारी के प्रति पवित्रता का भाव रखने तथा वृक्षारोपण द्वारा इन भावनाओं को क्रियाओं में परिणत करने का संकल्प करना चाहिए। यही इस पर्व का प्राण है, जिसे हम सबको पूरा करना चाहिए। इसी में हमारी परंपरा का पुनर्जीवन है।
डॉ प्रभात पांडेय
भोपाल, मध्यप्रदेश।